22 दिसंबर 2014

3 तारीख,1000 ₹ और पनीर की सब्जी

लड़के को लड़की से इश्क़ था पर लड़का कभी बोल नहीं पाया नहीं तो 28 तारीख को लड़की फ़ोन करके लड़के को अपनी शादी के लिए बुलाती भी नहीं।लड़का जानता कि अगर दिल के राज लड़की के सामने खोल दिए तो लड़की उसका साथ छोड़ देती।
3 साल से वे साथ में रहे थे। हर एक पल को ऐसे बिताया था जैसे दो प्रेमी इश्क़ को जीते हैं महसूस करते हैं।पर उनके बीच कुछ नहीं...कुछ भी नहीं था,ये बात लड़की सोचती और लड़का कभी बोल नहीं पाया था और न ही बोलना चाहता था।3 साल में वे सदियों को जी गये।बिछड़ जाने के बाद एक दुसरे के साथ बिताये पल को आगे आने वाली ज़िन्दगी में बचे वक़्त में जी भर याद कर सकें,इतनी यादें थी उनके पास...दिल में कैद।

बेशक ये इश्क़ नहीं था। बस वो साथ होते तो मुस्कुराने के लिए कोई वजह नहीं न ही कोई बंदिशें...वे चिल्ला-चिल्ला के बात करते...एक दुसरे के कंधों पर बारी बारी सोते...न कोई हद न किसी की परवाह...न वक़्त की न आने वाले कल की न जमाने की...उन्हें बस एक दुसरे का साथ चाहिए था,कब तक का साथ ? इस बात से दोनों बेखबर।
दोनों के दोस्त भी अजीब थे। उनकी दुनिया ही अजीब थी...उनके कारनामे और कुछ नाजायज़ करके वक़्त के मुंह पर थोप देना,उनके इस दोस्ती के लिए जायज़ था। वे दोनों अपने दोस्तों का गवाह मान के इस्लामी तौर-तरीके से कईं बार खुले छत पर निकाह भी फरमाया था "कबूल है...कबूल है...कबूल है..." ऐसा ।वे पास के राधे-कृष्ण की मंदिर में उनकी प्रतिमा के बिना किसी वचन के सात फेरे भी लिए थे,पंडित जी को दक्षिणा के साथ मिठाई भी खिलाया था,सुखी-संम्पन जीवन के लिए हँसते हुए आशीर्वाद भी लिया था। उनके अजब-गजब कारनामे देख वक़्त और उनकी बनाई झूठी दुनिया देख हैरान होती और उन्हें रत्ती भर का फर्क नहीं।

बात इतनी सी थी कि उनके बीच इश्क़ जैसा कुछ भी नहीं था न ही आने वाले कल में होता।लड़की ने बातों-बातों में एक बार कह भी दिया था कि उसे किसी से भी इश्क़ नहीं हो सकता।वो नहीं चाहती थी कि किसी के दिल टूटने की वजह वह बने...कोई रोए और बिना खिड़की वाले कमरे में खुद को कैद करके केवल साँस लेने भर जितनी ज़िन्दगी जीए।और लड़के को लड़की से इश्क़ था। लड़के ने अपने आने वाले कल लड़की के साथ सोचे थे पर उसे आज में भी लड़की के साथ रहना था इसलिए दिल की बात को होंठों तक नहीं लाया। लड़की अगर देखना चाहती तो लड़के के आँख में देख सकती थी पर लड़की ने कभी कोशिश ही नहीं की। वक़्त गुजरता गया और उनके दोस्ती की हिस्से में अलग होने का मुकाम आया। समाज की नज़र में लड़की बड़ी हो गई थी इसलिए उसके पिता जी के दिमाग में समाज की बातें घुसपैठ कर गई और उन्होंने अपनी बेटी को गाँव बुला लिया।

दोनों ख़ुशी-ख़ुशी अलग हुए। स्टेशन पर लड़का छोड़ने आया था। लड़की अंजान थी कि घर किस वजह से जा रही है पर खुश थी कि घर जाने वाली है।लड़का भी शायद खुश था,वह स्टेशन पर लड़की से आखिरी बार गले मिलना चाहता था पर लड़की को इस बात से कोई मतलब नहीं।वह वैसे ही अलग हो रही थी जैसे वो ट्यूशन के बाद लड़के को बाय बोलते हुए अपने फ्लैट की तरफ चली जाती। लड़की बिना गले मिले ट्रेन के साथ चली गयी और बहुत कुछ स्टेशन पर छोड़ दिया जिसे केवल लड़का देख सकता था,महसूस कर सकता था। लड़के ने वो सबकुछ उठाया,उससे चला नहीं जा रहा था..बहुत भारी-भारी चीझें छोडकर लड़की चली गई थी।

जाने से पहले दोनों में समझौता हुआ कि लड़का केवल महीने की 2 तारीख को लड़की से फ़ोन पर बात करेगा वो भी तब जब लड़की चाहेगी। लड़की नहीं चाहती थी कि उसके पिता जी को कुछ पता चले और वे समाज के अंतहीन और बेतुके बातों में खुद को उलझा ले।
लड़की के जाने के बाद लड़के की ज़िन्दगी वैसे ही सरकती रही बस रफ़्तार में कमी आ गई और मुस्कुराने के लिए लड़का वजह की तलाश में रहता। ग़ज़लें सुनता और कब सोता उसे खबर नहीं।हर महीने के शुरू होते ही लड़का 2 दिन तक खुद को कमरे में बंद कर लेता फिर 2 तारीख भी गुजर जाती और बंद कमरे में क्या बात होती ये लड़का ही जानता था। धीरे-धीरे उसके दोस्त कम हो गये और वह लोगों से मिलना भी बहुत कम कर दिया।

अक्टूबर की 28 तारीख। लड़की ने फ़ोन किया था और लड़के को लगा कि महीनों बाद फोन आया है थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था कि 2 तारीख आने में अभी 5 दिन है।
लड़की ने पूछा कौन?
लड़का क्या बताता कि कौन है?लड़की को पता था कौन है?पर आदत थी उसकी,शुक्र है अभी तक नहीं बदली।
"आवाज भारी हो गई है अभी भी जुकाम रहता है तुम्हें"लड़का हल्के कानों से सुनता रहा उसे,मन भारी लेके
"अगले वीक गाँव आओगे न?"लड़का सहम गया था।
सोचने लगा,सुनकर ये सवाल आखिरी बार गया था तबसे एक 'मैं' वहीँ रह गया था। लड़की बोलती रही,"3 को शादी है मेरी,तुम न आये तो जा नहीं पाऊँगी,आखिरी बार आ जाना"
लड़का-"कहा था आखिरी बार,जब मैं आखिर बार 'मैं' रहूँगा तब देखने आऊंगा,उससे पहले तुम्हारा हर आखिरी मेरा प्रारंभ होगा,बस मुझसे आना नहीं होगा"

हर महीने की तरह लड़के के लिए 3 तारीख गुजर गई।

लड़के को कटघरे में लाकर पूछा गया कि 3 तारीख को लड़की के गाँव क्यों नहीं गये?
लड़का हँसते हुए बोलता है "एक तो उनके गाँव आने-जाने का 1000₹ बैठ जाता है और ऊपर से शादी में पनीर की सब्जी भी नहीं थी,क्या करता जाकर?" कटघरे में लाने वाला सोचता रहा कि सही में लड़का गाँव जाकर क्या करता। पर लड़के ने पैसे और पनीर वाली बात कहते हुए नज़रें नहीं मिलाई थी पूछने वाले से...

1000₹ और पनीर की सब्जी...

                                                       
                                                                                                                                                                               -मन

12 अक्तूबर 2014

भीड़-लड़का-लड़की-पल भर का इश्क

उस दिन आसमान पर धूसर रंग का कब्ज़ा नीले रंग से कुछ ज्यादा था बाकि दिन पहले जैसा ही। बस स्टॉप पर भीड़ थी,पर कोई भी कुर्सी पर बैठना नहीं चाहता था।

फिर एक लड़की आई और भीड़ को चीरते हुए एक कुर्सी पर खुद को कपड़ों के साथ समेटते हुए बैठ गई। वह घर से उस दिन जल्दी आ गई थी जो उसे बस के लिए भीड़ को देखते हुए इन्तजार करना था। जाने की बजाय लोग आते ही जा रहे थे,भीड़ का कुनबा धीरे-धीरे बढ़ता हुआ। तभी एक लड़का आया और भीड़ का हिस्सा बन गया।

लड़की उस हमउम्र लड़के को देखने लगी। लड़के ने भी लड़की को कुर्सियों के साथ अकेले बैठे हुए देखा,दोनों की नज़रे मिली। लड़की की आँखों ने मुस्कुराते हुए लड़के से जैसे कहा हो कि आइये मेरे करीब में बैठ जाइये। लड़का खुद को रोक नहीं पाया। अगले पल दोनों हँसते हुए बातें कर रहे थे। भीड़ उन्हें देखती और कुछ फुसफुसाते हुए अपनी मंजिल की तरफ बढ़ जाती। दोनों ने एक-दुसरे को जान समझ लिया। लड़की को लिखने का शौक था,उसने अपनीं कविता लड़के को पढाई,लड़के ने वाह-वाह किया साथ में लड़के के हाव-भाव ने भी वाह-वाह किया। लड़के को पढने का शौक था,उसने अपनी कुछ पसंदीदा किताबों के नाम लड़की को बताया और रिक्वेस्ट किया कि लड़की उन्हें पढ़े। दोनों खामोश हो गये,भीड़ का आना-जाना लगा रहा।

लड़के ने लम्बी सांस ली और हिचकिचाते हुए कहा "मुझे आपका कांटेक्ट नम्बर चाहिए" लड़की ने अचानक कहा "फिर से कहना" लड़का बोला "वही कहा जो आपने सुना" लड़की कहती है "हेल्लो मिस्टर ! बमुश्किल 15-20 मिनट के बरताव से तुमने ये नतीजा निकाल लिया कि अब हम दूर रहते हुए भी जुड़े रहे?आपके जैसे मुझे बहुत से लड़के मिलते हैं रोज तो इसका मतलब मैं सभी को अपना..." लड़का कहता है "ओके,सॉरी ! आपकी आँखों ने और मेरे नादां दिल की ये गुस्ताखी है फिर भी मैं माफ़ी मांग रहा हूँ,नम्बर मत दीजिये..अपना नाम तो बताइए?" लड़की कहती है है "शमा खातून,तुम्हारा क्या नाम हुआ?"
लड़का नाम बताने से पहले लड़की का नाम सुन के सुकून से मुस्कुराया फिर कहता है "जी,विजय नाम हुआ हमारा।माफ़ कीजियेगा,मेरा बस 15 मिनट पहले ही था। मैं बहक गया था।अब नंबर की कोई जरुरत नहीं"

लड़की खामोश बैठी रही।लड़का कुर्सी पर से उठ के भीड़ में जा खड़ा हो गया। भीड़ का हिस्सा बन गया। लड़की अब भी खामोश बैठी रही और गले को तर करने के लिए बैग से पानी के बोतल को बड़े जोर से पकड़ के पानी पीने लगी,गला तर भी न हुआ था कि पानी खत्म।लड़की खामोश बैठी रही,भीड़ ज्यों का त्यों पर लड़की खामोश बैठी रही।


                                                                                                                                                                - मन

28 सितंबर 2014

यही ज़िन्दगी है

ज़िन्दगी !
अजनबी राहें
दो राही
हाथ पकड़
साथ-साथ चलना
पर
अंधेरों के दस्तक देते ही
हाथ की पकड़ ढीला होते जाना
यहीं ज़िन्दगी है?

एक नदी
दो किनारा
कोई तिनका नहीं
दोनों एक-दूजे के लिए मांझी
पर
लहर के दस्तक देते ही
दोनों इस उम्मीद में कि
कोई तो आगे होके हाथ थामेगा
दोनों हांफने लगे
किनारा भी दूर..बहुत दूर है
यहीं ज़िन्दगी है?

लड़के ने कहा
एक दिन
लड़की से
"दोस्ती करोगे मुझसे"
वे दोनों चुपचाप चलते रहे
साथ-साथ
कहाँ?पता नहीं
यकायक
ढलता सूरज
दोनों से कहता है
"घर पर इंतजार हो रहा है तुम्हारा"
 यहीं ज़िन्दगी है?

लड़की ने कहा
एक दिन
लड़के से
"किसी के दिल टूटने की वजह
 मैं नहीं बनना चाहती
 पर हम जब-तक चाहेंगे
 तब-तक 'दोस्त' बने रहेंगे"
 यहीं ज़िन्दगी है?

फिर
लड़के ने
उसी रात
सपने में
लड़की से ये बोलता पाया
"देखो
ऐसा भी वक़्त जीवन में आता है,
जब अच्छा-खासा दोस्त भी दुश्मन बन जाता है
और
जब दोस्त दुश्मन बन जाये
तो
इन्सान को अर्श से फर्श पर आने में
वक़्त नहीं लगता"
यही ज़िन्दगी है?

लड़का सोचता है
उसे ताउम्र 'दोस्त' बन
उस लड़की के साथ रहना है
लड़की को पढना है
कि
आखिर किस भाषा में लिखी गई थी
वह लड़की !
यहीं ज़िन्दगी है?

लड़का सोचता है
कि
उसके सारे ख्वाहिशों को
लड़की
पंख तो दे नहीं सकती
फिर सोचता है
वो ख्वाहिशें सिर्फ उसके ज़ेहन की नहीं
लड़की भी तो आधे की हक़दार थी
बेखबर आवारा
वो लड़का
यहीं ज़िन्दगी है?

वह लड़का
पता नहीं
क्या-क्या सोचता गया
उलझता गया
लड़की बिखरती गई उसमें
साथ में वह खुद भी
पर
किसी मोड़ से
लौटकर वापस आ गया
लड़का शयद !
ख़ुद से मिल गया है वो शायद !
एक दिन
उगता हुआ सूरज
मुस्कुराकर
कहता है लड़के से
"घर पर अब इंतजार नहीं हो रहा तुम्हारा"
यहीं ज़िन्दगी है?



सामने दूर..बहुत दूर ही सही,
एक मंजिल तो है
एक नाव के लिए,
एक ही मांझी,तो है
मांझी नहीं तो
ख़ुद वो तो है ही
ख़ुद को किसी भी राह पर
ले जाकर
भटक कर
थक कर
फिर
लौट जाना
पर
अपने अन्दर के इन्सान को
जिंदा रखना
जी हाँ !
यहीं ज़िन्दगी है...

                                                                         - मन


23 सितंबर 2014

राष्ट्रकवि दिनकर~अपने समय का सूर्य हूँ मैं...

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज 106वीं जयंती हैं। उन्हें अलविदा कहे हुए 40 साल से अधिक का वक़्त बीत चूका है मगर उनकी रचनाएं आज भी उनके 'चाहने वालों' की जुबां पर बनी हुई हैं।इनका जन्म बिहार के बेगुसराय(तत्कालीन मुंगेर)जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था। यह गाँव मिथिला-भूमि का एक तीर्थ स्थल भी माना जाता है जो दो नदियों से घिरा हुआ है। गंगा नदी पर निर्मित राजेंद्र सेतु का उत्तरी किनारा सिमरिया गाँव के साथ लगता है। रामधारी सिंह पिता बाबु राव सिंह व माता मनरूप देवी की दूसरी संतान थे। किसान परिवार से सम्बंधित दिनकर अभी एक साल के थे तब पिता जी अलविदा कह गये,माँ आर्थिक हालात से जूझते हुए बेटों को पाला और पढाया।कम उम्र में ही विवाह हुआ और इनकी हमसफ़र ने पढाई तथा साहित्य साधना में पूरा सहयोग दिया।

दिनकर कहते हैं
                     
               "मैं न तो सुख में जन्मा था,न सुख में पलकर बढ़ा हूँ किन्तु मुझे साहित्य का काम करना है और यह विश्वास मेरे भीतर छुटपन से ही पैदा हो गया था। इसलिए ग्रेजुएट होकर जब मैं परिवार में रोटी अर्जित करने में लग गया तब भी,मेरी साहित्य की साधना चलती रही"


'युवक' पत्र जिसे रामवृक्ष बेनीपुरी निकालते थे में दिनकर की रचनाएं प्रकाशित हुई 'अमिताभ' नाम से।1928 में मैट्रिक पास की,1930 में गाँधी जी के 'नमक सत्याग्रह' में भागीदारी की किन्तु अपने पारिवारिक जीवन के दायित्वों के कारण बीए करने के लिए पढाई जारी रखनी पड़ी। बीए पास करने के बाद उन्होंने 55₹ मासिक पर एक स्कूल में हेडमास्टर की नौकरी शुरू की पर एक जमींदार द्वारा संचालित इस स्कूल में अंग्रेजीयत का बोलबाला और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के रहते उसे छोड़ 1934 में सब रजिस्ट्रार की नौकरी हासिल की और 1943 तक इस पद पर रहें। आज़ादी के बाद उन्हें प्रचार विभाग का डीप्टी-डायरेक्टर बना दिया गया।नौकरी से ऊबे हुए दिनकर ने 1950 में इस्तीफा दे दिया,इसके बाद बिहार सरकार ने मुज्जफरपुर के पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया।1952 में इस पद को त्याग कर राज्यसभा के सदस्य बने,इसके बाद भागलपुर विश्वविद्यालय में उप कुलपति रहे।1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहें।


1928 में 'प्रण-भंग' उनकी पहली प्रकाशित रचना मानी जाती है जो अब मौजूद नहीं है।1959 में उन्हें पद्मभूषण मिला।उनके काव्य संग्रह 'उर्वशी' के लिए 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गये।'संस्कृति के चार अध्याय' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।उनकी रचनाओं को कईं विदेशी भाषाओं में अनुदित होने का गौरव प्राप्त है,उनकी 'संस्कृति के चार अध्याय' को जापानी भाषा में अनुवाद किया गया है।उनकी प्रमुख कृति है 'उर्वशी' 'रश्मिरथी' 'संस्कृति के चार अध्याय' 'चक्रव्यूह' 'हुंकार' 'आत्मजयी' 'कुरुक्षेत्र' 'वाजश्रवा' 'परशुराम की प्रतीक्षा'
"कलम आज उनकी जय बोल" "आशा का दीपक" "हिमालय" "चाँद का कुरता" "नेता" दिनकर साहब की ये पांच छंद-कविता में उनके साहित्य के पांच रंग को आसानी से देखा जा सकता है।

हरिवंश राय बच्चन ने कहा था ~

        "दिनकर जी को एक नहीं गद्य-पद्य-भाषा-हिंदी सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए"


('महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय' जो की महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित है। इस विश्वविद्यालय का अभिक्रम www.hindisamay.com ~ 'हिन्दी साहित्य सबके लिए' पर आप राष्ट्रकवि दिनकर को पढ़ सकते हैं)


'आज भी अछूता है दिनकर का गाँव'
पत्रकार सुरेश चौहान लिखते हैं ~
              
          "दिनकर का यह गाँव(सिमरिया),जहाँ दसवीं पास करने के बाद लड़के व लड़कियों को जिला मुख्यालय की ओर टकटकी लगाना पड़ता है। जहाँ प्रसव के लिए निजी अस्पतालों पर ही निर्भर होना पड़ता है। जहाँ बिजली के लिए लोगों को बरौनी थर्मल के राख से चेहरा और फेफड़ा काला होता जा रहा है। जहाँ रह-रह कर कल-कल करती गंगा उफान और दहाड़ मारती हो। जहाँ हर वक़्त किसानों की जमीन पर ईंट चिमनियों के धुएं दूर आसमान तक बाजारवाद का पोषक बन मंडरा रहे हों। ऐसी स्थिति में आज भी सिमरिया के लोगों के समक्ष यह जटिल प्रश्न है कि आखिर कैसे होगा आदर्श ग्राम सिमरिया"


दिनकर की जयंती हो या पुण्यतिथि हर बार राष्ट्रकवि के आशियाने को राष्ट्रिय स्मारक के रूप में सजाने-सँवारने के कवायद की घोषणा की जाती रही हैं और यह घोषणा विगत तीन दशक से की जा रही है।घोषणाओं का यह सिलसिला 1 नवम्बर 1986 से चल पड़ा।
      
       "तुमने दिया राष्ट्र को जीवन,राष्ट्र तुम्हें क्या देगा।
      अपनी आग तेज रखने को,नाम तुम्हारा लेगा।।

ये पंक्तियाँ दिनकर ने महात्मा गाँधी जी के लिए लिखी थी पर आज के समय में दिनकर पर ही ये पंक्तियाँ चरितार्थ हो रही है। दिनकर ने जिस समाज और राष्ट्र की कल्पना अपनी कविताओं में उकेरने की कोशिश की थी'वो वक़्त की परत में दबती जा रही है या यूँ कहें कि आज के पीढ़ी को उनकी साहित्य साधना केवल पढ़कर उन्हें याद कर उनके जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर कोई कार्यक्रम आयोजित कर पल्ला झाड़ लेना चाहती हो !

रामधारी सिंह दिनकर ने "मंदिर और राजभवन" नाम से लगभग दो पन्नो में एक लेख लिखा है। उसके कुछ अंश ~
           
मंदिर है उपासना का स्थल,जहाँ मनुष्य अपने-आपको ढूंढ़ता है।
राजभवन है दंड-विधान का आवास,जहाँ मनुष्यों को शांत रहने का पाठ पढाया जाता है।
मंदिर कहता है,"आओं,हमारी गोद में आते समय आवरण की क्या आवश्यकता?पारस और लोहे के बीच कागज का एक टुकड़ा भी नहीं रहना चाहिए;अन्यथा लोहा ही रह जायेगा।"
और राजभवन कहता है,"हम और तुम समान नहीं हैं। हम प्रताप की पोशाक पहने हुए हैं तुम अधीनता की चादर लपेटे आओं क्योंकि हम शासक हैं और तुम शासित,हम तुम्हें गोद में नहीं बिठा सकते,अधिक से अधिक अपनी कुर्सी के पास स्थान दे सकते हैं"
मंदिर कहता है,"लोग संसार में लिप्त है,वासना के रोगों से पीड़ित हैं,हम उन्हें संसार से विरक्त करेंगे जिससे दंड विधान की जरुरत ही नहीं रह जाय।"
राजभवन कहता है,"लोग संसार में अनुरक्त है और जबतक वे अनुरक्त हैं तब तक उनपर पहरा देने के लिए एक सत्ता की जरुरत है। वह सत्ता हम हैं।"
    
    मंदिर कहता है "हम मनुष्य को सुधारेंगे"
    राजभवन कहता है "हम मनुष्यों पर शासित करेंगे"

गाँधी जी अहिंसा सिखाते-सिखाते स्वयं हिंसा के शिकार हो गये।मंदिर गिर गया और राजभवन का दंड-विधान अपनी जन्मपत्री में अपना भविष्य देख रहा है।
गाँधी जी के मृत्यु के साथ संसार की एक पुरातन समस्या,मनुष्य-जाति का एक प्राचीन प्रश्न फिर अपनी विकरालता के साथ हमारे सामने आया है"

आज के समय में राजभवन भी जरुरी है और मंदिर भी ! 2 अक्टूबर आने ही वाला है !
बलिदान एवं वीरता का राग अलापने वाले,अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध क्रांति का भीषण शंखनाद करने वाले तथा कर्तव्य एवं प्रेरणा का दिव्यलोक वितरित करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर 24 अप्रैल 1974 को अलविदा कह गयें !
      
      "कहाँ सिमरिया घाट,कहाँ दिल्ली का दूर नगर है
      मानचित्र पर ढूंढों कविवर कहाँ तुम्हारा घर है...

बिहार की मिट्टी की सोंधी गंध में प्रस्फुटित हो-दिल्ली तक खुशबुओं को बिखरने वाले लब्ध प्रतिष्ठ कवि दिनकर अपने भव्य व्यक्तित्व,सादा जीवन एवं उच्चादर्स के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।

दिनकर ने एक जगह स्वयं के बारे में लिखा है 

"मर्त्य मानव की विजय का तुर्य हूँ मैं,उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं"

आज वहीँ सूर्य,वहीँ दिनकर,बिहार सरकार,साहित्य अकादमी और साहित्यिक संस्थाओं,गंगा को बचाने वाले लोग,रिफायनरी प्रशासन की उदासीनता का दंश झेल रहे हैं। आखिर क्यों कोई दिनकर के लिए करे-धरे?दिनकर तो राष्ट्र के लिए जिया।एक राष्ट्र उन्हें क्या दे सकता है?जब-जब सत्ता के लोगों को दिनकर की जरुरत पढ़ती है,वे दिनकर का नाम लेते रहते हैं...दिनकर को और क्या चाहिए...

उनका गाँव(?)सिमरिया उनकी जयंती के मौके पर हर साल उनकी याद में कार्यक्रम आयोजित करता है।इस बार भी वहां दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन है।

राष्ट्रकवि दिनकर~"अपने समय का सूर्य हूँ मैं..."
                         
                                                                                                                                                               - मन

*साभार~अख़बार

17 सितंबर 2014

लम्बी उम्र-ख़ुशनुमा ज़िन्दगी

सभी के लिए ज़िन्दगी अलग मायने लीये हुए हैं।सभी के जीने के तौर-तरीके अलग है।हमें ये देखना चाहिए कि जो ज़िन्दगी हमें ऊपर वाले ने दी है उसे कैसे बेहतर(?)बना सकते हैं।दूसरों की नज़र में न सही पर खुद की नज़र में खुद के लिए कम से कम शिकायत हो"ऐसा कुछ झलके अपने अंदर तो बात बने और इस बात को सच होने के लिए सबसे जरुरी शर्त है 'वो काम करना जो दिल कहे'

मनोवैज्ञानिक स्त्रली ब्लॉत्निक ने एक रिसर्च में पाया कि पैसे से सुख को नहीं ख़रीदा जा सकता लेकिन आप अपने जीवन से ख़ुश है,आनंदित है तो आप वह सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसकी आपको जरुरत है।

ब्लॉत्निक ने अपनी रिसर्च में दो ग्रुप बांटे,एक ग्रुप के पास बहुत सारा पैसा था,दुसरे ग्रुप जिनके पास पैसे तो नहीं था लेकिन उन्हें अपने काम से प्यार था और किसी भी हद तक सफलता प्राप्त करने का जुनून था।1500 लोगों को रिसर्च का हिस्सा बनाया।रिसर्च को 20 साल तक लगातार करते रहने के बाद पाया कि दुसरे समूह के लोग जिन्हें अपने काम से प्यार है उनमें से 101 लोग करोडपति बन गये हैं जबकि पहले समूह के लोग जिनके लिए पैसे ज्यादा अहमियत रखता था उनमें से केवल 1 व्यक्ति ही करोडपति बन सका।
रिसर्च में इसका जो सबसे बड़ा कारण सामने आया वह यह था कि "जब हम किसी काम को दिल से नहीं करते तो छोटी-छोटी चीझों को नज़रंदाज़ कर देते हैं जो हमारे लिए बहुत मायने रखती है।जबकि कोई काम जुनून से किया जाए तब छोटी से छोटी बात को भी बहुत बड़ी समझ कर करते हैं।

माइकल जैक्सन और भारत के प्रभु देवा...सभी जानते हैं ! प्रभु देवा का प्रारंभिक जीवन मैसूर की तंग गलियों की एक चौपाल में बिता।लेकिन बचपन से माइकल जैक्सन जैसा बनने की ख्वाहिश ने उनके रास्ते के सभी रुकावटों को दूर किया।प्रभु देवा अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं

                    "बचपन से ही डांस का इतना जुनून था कि मैं सोते-जागते डांस के ही सपने देखता। इसलिए जब रात को लेटे हुए कोई भी स्टेप याद आता तो चुपके से चौपाल के कोने में जाकर स्टेप दोहराता रहता। कहीं मैं सुबह जागूं और वह स्टेप भूल न जाऊं इसलिए ऐसी करते रहता था"
आज प्रभु देवा फिल्म उद्योग के जाने माने चेहरे हैं,उनके पास सबकुछ है ! "जुनून की बदौलत...

सचिन तेंदुलकर,1989 के पाकिस्तान के साथ सियालकोट के उस मैच को कौन भुला सकता है,जब 16 साल के सचिन को फेंकी गयी गेंदें उनका जबड़ा और नाक तोड़ गयी और दिग्गज कपिल देव,रवि शास्त्री के साथ डॉक्टर ने भी आराम करने की हिदायत दी पर सचिन डटे रहे मैदान पर और शतक ठोक कर ही बाहर निकले।

'जुनून' की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यह हमारी कमियों को आसानी से अच्छाईयों में तब्दील करके हमारे रास्ते को आसान बनाता है। जब आप किसी से प्यार करते हैं तो ज़िन्दगी जीने के तौर-तरीके भी उसी हिसाब से बदलता जाता है। यही बात जुनून के साथ भी है। जुनून एक ऐसा शब्द है जो मन में जज्बात पैदा करता है जो हमें साधरण से अलग श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। हर बात में ख़ुशी झलकती है और दुनिया बेहद खुबसूरत बन जाती है,किसी ऊपर वाले के होने पर और शिद्दत से विश्वास होने लगता है।

अमेरिका की प्रथम महिला 'मार्था वाशिंगटन' कहती हैं      
                     "स्थितियां कैसी भी क्यूँ न हों,मैं अब भी आनंदमय और खुश रहने के लिए प्रतिबद्ध हूँ क्योंकि मैंने अनुभव से यह सिखा है कि हमारी खुशियों और दुखों का बड़ा हिस्सा हमारी सोच पर निर्भर करता है न कि हमारी परिस्थितियों पर"

ज़िन्दगी चलते रहने का नाम है,अपने पसंदीदा शौक को जगाएं,हवा देकर उसे सहलाते हुए आगे बढ़ाएं क्या पता यह शौक आपकी ज़िन्दगी के किसी पड़ाव पर नई पहचान दे। इसकी कईं बानगियाँ दुनिया में मौजूद है,बस आप खुद से मिलिए और दिल की सुनिए और दिमाग को दिल पर पहरेदारी के लिए तैयार रखिए।मिल्खा सिंह,सचिन तेंदुलकर,अब्दुल कलाम,लता मंगेशकर या मैरी कोम जैसा मत बनिए पर इन असाधारण हस्ती के जैसे जुनून अपने अन्दर जिंदा रखिये,क्या पता कब रोशन हो जाए ज़िन्दगी की बत्ती।
हीरो-होंडा दुपहिया वाहन की दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी,2010 के आखिर में 26 साल से साथ काम करते हुए अलग होने का फैसला किया।हीरो मोटोकोर्प में बदल गया।अलगाव के बाद ए आर रहमान साहब ने हीरो मोटोकोर्प के लिए टाइटल गीत बनाया,गाना कुछ यूँ है
       
       "दिल धीरे धडके है आज
        होने को है आगाज़
        सफ़र पे चलने का बढ़ने का
        इतना है हौंसला
        मिटना फासला
        मंजिल ने मिल ही जाना है
        ओ...ख्वाबों से आगे जाना है

        हमी से तो उम्मीदें हैं
        हमी से तो दिलासा है
        हम पे है निगाहें भी
        हम पे तो भरोसा है

        हम में है हीरो
        हम में है हीरो

        दिल से कहो..हे ! हम में है हीरो..."

भारत की नुग्शी और ताशी नाम की जुड़वाँ बहनों ने पर्वतारोहन के लिए नई जमीन तैयार की है।
ताशी शांत स्वभाव की है,चुलबुली नुग्शी कहती हैं

        "जब भी हम किसी पहाड़ पर चढ़ते हैं तो लगता है पापा ने बहुत मेहनत से पैसा जमा किया है।हम पहाड़ पर बेझिझक चढ़ सकें,इस सपने के लिए वे बहुत दौड़े हैं। इससे अच्छा कुछ नही हो सकता कि इतने कठिन रास्तों पर आपकी बहन आपके साथ हों।

अपने अन्दर के इंसानियत को बचाए रखना एक चुनौती है और यही चुनौती हमें बेहतरी की ओर ले जाता है। दूसरों के लिए न सही पर खुद के लिए कुछ अच्छा कीजिये क्योंकि हम सब खास है बहुत खास,हमें जो ज़िन्दगी मिली है वो सबके नसीब में नहीं !इस उधेड़बुन में न रहे कि कहाँ से शुरुआत करनी है बस खुद के अन्दर देखते हुए बाहर निकल पड़िए,मौसम अच्छा है और एक बेहतर ज़िन्दगी आपके हाथ में है और ये फैसला भी आपके हाथ में है कि किस तरफ जाना है। खुद पर भरोसा करना ही ज़िन्दगी जीने की कला है और कला की उम्र बहुत धीरे-धीरे बढती है किसी के दिल में पैठ जमाने के लिए वर्षों लग जाते हैं।

अमेरिकन लेखिका एदिता मौरिस लिखती हैं कि

           "धुन का पक्का आदमी बुलडोज़र की तरह होता है,वह अपने रास्ते में आने वाले किसी रोड़े-पत्थर की कोई परवाह कभी भी नहीं करता"

"हम सब कुछ तो नहीं कर सकते,पर हम भी कुछ जरुर कर सकते हैं" इसी जज्बे के साथ ज़िन्दगी को शुक्रिया अदा करते हुए,बस आगे बढ़ते रहिए।

2012 में एक फिल्म आई थी "आशाएँ" इस फिल्म से एक नगमा है,प्रीतम चक्रवर्ती+सलीम सुलेमान ने कम्पोज किया है,मीर अली हुसैन के शब्द हैं और गाया है शफ़्क़त अमानत अली ने...कुछ यूँ

              "छन के आई तो क्या चांदनी तो मिली
             छन के आई तो क्या चांदनी तो मिली..
             चंद दिन ही सही ये कली तो खिली
             शुक्रिया ज़िन्दगी..शुक्रिया ज़िन्दगी..
             तेरी मेहरबानियाँ..तेरी मेहरबानियाँ..
             शुक्रिया ज़िन्दगी..शुक्रिया ज़िन्दगी..
             सिर्फ इक रंग से तस्वीर होती नहीं,
             गम नहीं तो ख़ुशी की कीमत नहीं..
             धुप छाँव है दोनों तो दिलकश जहाँ
             क्या शिकायत करें फुरसत कहाँ
             शुक्रिया ज़िन्दगी...

लम्बी उम्र की और ज़िन्दगी को ख़ुशनुमा बनाये रखने की इच्छा हर इन्सान के भीतर जन्म के साथ ही साँस लेने लगती है

                                                    - मन

8 सितंबर 2014

लड़के की ज़िन्दगी...

लड़के की ज़िन्दगी
गुजरता हुआ वक़्त
उस वक़्त की परत में
दबती जा रही एक लड़की
जो लड़के के सपनों में,
आधे की हक़दार थी...
जमाने ने उस लड़के को ज़ख्म दीये
उसी जमाने के हाथ में मरहम मिला उसे
चलते-चलते अजनबी राहों में
एक लड़की मिली उसे !
रूप अलग रूह एक
लम्हें अलग सुकून एक
बातें अलग मुस्कुराहट एक...
लड़की का दिल लड़के के करीब है
शायद लड़के का दिल भी लड़की के पास
यह शायद ! यकीन में बदल जाए तो
लड़के के मेज पर रखीं गीले पन्नों पर,
रुक-रुक कर चलने वाली कलम को रफ़्तार मिले
और
मुक्कमल हो जाए,
दो रूह...दो दिल...
गुजरता हुआ वक़्त और
लड़के की ज़िन्दगी...

                                                - मन

17 अगस्त 2014

लड़का-डायरी-तकिया...

वह लड़का हमेशा मुस्कुराता रहता था।19 बसंत देख चूका था।उसके पहनावे से वह नई पीढ़ी के लड़कों में गिना जाता पर उसे पुराने गाने सुनना बेहद पसंद था।उसकी ज़िन्दगी खुद की वजह से कम और उसके माता-पिता,दादा-दादी,छोटी बहन,कुछ दोस्तों की वजह से ज्यादा चलती थी।उसे किसी से शिकायत नहीं थी न खुद से न खुदा से !
वह अपने निजी कमरे में अकेला खुद के वजुद के साथ घंटो बिताता,उसकी माँ उसके टेबल पर हमेशा एक गिलास पानी हर एक-दो घंटे में रख आती थी।
वह जितना वक़्त अपने हिसाब से बनाये दोस्तों को देता उतना ही अपनी छोटी बहन के साथ भी रहता,बेमतलब से सवाल दादी से पूछता और ऐसे कुछ काम करता कि उसके दादा जी उसे डांट सके फिर वह दादा जी को कभी पलट के जवाब न देकर अपने चेहरे को मुस्कुराने के लिए कहता। घर से ज्यादातर वक़्त दूर रहने वाले पिता से वह खौफ रखता और माँ को कभी यह कहने का मौका नही देता कि उन्हें अपने एकलौते बेटे से शिकायत है।
खुशनुमा दिन गुजर जाने के बाद रात के इंतजार में वह रहता था। रात को अपनी पर्सनल डायरी में दिन भर के उन लम्हों को हुबहू उतार देता जिनसे वह मुस्कुरा उठता हो,बेमतलब सी बात भी कागज-कलम का साथ पाके मतलब ले लेती थी।डायरी लिखते वक़्त वह बेहद खुश होता।हर पेज के आखिरी में वह ऊपर वाले का शुक्र अदा करता,तहदिल से खुदा को याद करके प्रार्थना करता फिर वह उस डायरी को उस तकिये के नीचे छुपा देता जहाँ वह चुराए हुए पैसे छुपाकर रखता था। फिर किशोर दा का गाना "कैसी है पहेली ज़िन्दगी..." सुनते हुए नींद के आगोश में चला जाता,अँधेरी रातों को जोर का सदमा देके !
                                                       -मन

4 अगस्त 2014

किशोर दा-आज भी करीब है...

कुछ लोग इक रोज जो बिछड़ जाते हैं वो हजारों के आने से मिलते नहीं"
जी हाँ ये गाना है फिल्म "आप की कसम" से जो किशोर दा काका(राजेश खन्ना-फिल्म इंडस्ट्री का पहला सुपरस्टार)के होठों से कह गये...
आज उनकी 85वीं जन्म सालगिरह है...किशोर दा(आभास कुमार कुंजालाल गांगुली)किसी भी परिचय के मोहताज़ नहीं क्यूँकी उन्होंने उन आम लोगों को गुनगुनाने का मौका दिया जिन्हें सुर-ताल की कम ही समझ हैं,किशोर दा कभी भी मन्ना डे या रफ़ी साब के जैसे शास्त्रीय संगीत की तालीम नहीं ली पर उनके गायिकी का अंदाज़ देखिये कि उन्होंने इस चीझ की कभी कमी महसूस न होने दी इसलिए मेल प्लेबैक सिंगर के केटेगरी में सबसे ज्यादा 8 बार उन्होंने फिल्म फेयर अवार्ड हासिल किया वही रफ़ी साब के हिस्से में 6 फिल्म फेयर अवार्ड आया।किशोर दा को 57 साल के उम्र में भी फिल्म फेयर अवार्ड के लिए चुना गया जो कि रिकॉर्ड है(सबसे कम उम्र में अरिजीत सिंह को 26 साल में फिल्म फेयर मिला है) किशोर दा को पहला फिल्म फेयर अवार्ड 1969 में शक्ति सामंता के निर्देशन-निर्माण में बनी फिल्म "अराधना" के गीत "रूप तेरा मस्ताना" के लिए मिला,ये फिल्म 1946 की हॉलीवुड फिल "To Each Has Own" की रीमेक थी,मूवी ऑफ़ द इयर चुनी गयी थी साथ ही शर्मीला टैगोर को बेस्ट एक्ट्रेस का पहला फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला था।इस फिल्म में एक और गाना था "मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू" ये गाना हर आदमी के जुबान चढ़ गया था और कोई भी शादी इस गाने के बजे बगैर अधूरी रह जाती थी(अभी भी मशहूर है)
किशोर दा इंदौर के क्रिशचन कॉलेज से पढाई की वहाँ वे कॉलेज के कैंटीन से उधार में खाते और दोस्तों को भी खिलाते।उस समय 10-15 ₹ की उधारी बहुत मायने रखती थी,जब किशोर दा के 5 ₹ 12 अन्ना उधार चढ़ गया तो कैंटीन वाला तकाजा करने लगा फिर किशोर दा टेबल पर ही गिलास-चम्मच से 5 ₹ 12 अन्ना पर धुन निकालते बाद में उन्होंने अपने गानों में इसे बखूबी यूज किया।
किशोर दा रियल लाइफ में कैसे थे अगर आपको ये जानना है तो आप उनकी फिल्म "पड़ोसन" देखिए वैसे सभी ने देख रखे होंगे :)
किशोर दा ने शुरुआत फिल्मों में एक्टिंग से की तब उन फिल्मों में उनकी आवाज बने रफ़ी साब।रफ़ी साब ने उनके लिए गाये पहले गाने के लिए 1₹ मेहनताना लिया था।
किशोर दा रियल लाइफ में भी मशहूर हुए।उनके अजब-गजब कारनामे जैसे कि वे अपने कईं गानों में यूडलिंग का प्रयोग कर नया ट्रेंड चलाया...उनके मेहनताना न देने पर निर्माता से पैसे लेने का तरीका सबकुछ जुदा।
किशोर दा ने चार शादीयाँ की,पहली शादी रुमा गुहा ठाकुरता से की(1950-58)फिर तलाक ले लिये फिर दूसरी शादी (1960-69) मधुबाला (मुमताज़ जेहान देहलवी) जी से,शादी करने के पहले उन्हें जानकारी थी कि मधुबाला जी को बीमारी है और उनकी ज़िन्दगी बस कुछ साल की ही है इसके बावजूद वे इस्लाम को कबूल कर उनसे निकाह किया।(किशोर दा का इस्लामी नाम-करीम अब्दुल)
तीसरी शादी योगिता बाली से(1976-78) हुई जो कि बाद में मिथुन दा की पत्नी बनी,शादी के बाद किशोर दा मिथुन दा से खफा हो गये और उनकी फिल्मों के लिए अपनी आवाज़ नहीं दी तब जाके बप्पी दा का सिक्का चला और म्यूजिक इंडस्ट्री में एक नया बदलाव "आई एम अ डिस्को डांसर" के रूप में बेहद मशहूर हुआ।
उन्होंने चौथी शादी 25 साल की उम्र में विधवा हुईं लीना चंदावरकर से(1980-87)की जो कि उनके साथ आखिरी साँस तक रहीं।
एक गाने में वह कहते हैं "आग से नाता नारी से रिश्ता काहे मन समझ न पाया...मुझे क्या हुआ था एक बेवफा पे हाय मुझे प्यार आया..."(फिल्म 'अनामिका')
लोग कहते हैं कि 4-4 शादीयाँ?इसे प्यार नहीं कहते?
हमारा मानना है कि उनके लिए प्यार के मायने अलग हो सकते हैं जो कि 1987 में उनकी रूह के साथ दफ़्न हो गयी आज वे होते तो इस मुद्दे पर खुल के जिंदादिली से बात करते पर काश! वैसे भी वे अनूठे थे,ये सब होने के बावजूद उनके प्रशंसक उन्हें पसंद करना छोड़ नही देंगे पर हमें कोई हक नही देता कि हम किसी के निजी मामलों पर कुछ कह सकें,जो कहानी इतिहास में दर्ज हो गयीं उनका बस लुत्फ़ उठाया जा सकता है।
एक प्रशंसक के तौर पर मेरा इतना मानना है कि उनके ही कारण हमारे जैसे अनगिनत चाहने वाले गुनगुनाना सिख पाए।
उनके चले जाने के पहले प्रीतेश नंदी ने उनका इंटरव्यू लिया था वो कन्फेस करते हैं कि बॉलीवुड में उनका कोई दोस्त नहीं है,उन्हें अपने पेड़ों से बात करने में ज्यादा मज़ा आता है" लीना(उनकी चौथी पत्नी)जी एक वीडियो में कहती हैं "किशोर दा एक बार कहे थे मेरे चले जाने के बाद भी लोग मुझे याद करेंगे" आज उनके जाने के 27 साल बाद भी वो हम जैसे ढेरों प्रशंसको की जेहन में उनकी यादें और नग्मे जज्ब हैं।
उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर आज के गायक शांतनु(शान)कुछ हद तक भरपाई करते हैं क्यूंकि गाते वक़्त जैसे किशोर दा मुस्कुराते थे वैसे ही शान का भी गाने का तरीका है ठीक वैसे ही जैसे सोनू निगम रफ़ी साब की कमी को एक हद तक पूरी करते हैं।अगर आप जवानी के किशोर दा को फिल्मों में एक्टिंग करते देखेंगे तो आपको रणबीर कपूर(ऋषि-नीतू कपूर के बेटे) के एक्टिंग वाले चेहरे में वही झलक दिखेगी।
गुलज़ार साब ने ऐसी शख्सीयत के लिए उनके ही एक गाए गाने में कुछ यूँ बयाँ किया है-(वो कल भी पास-पास थी,वो आज भी करीब है)

किशोर दा "वे कल भी पास-पास थे...वे आज भी करीब हैं..."

-मन
(साभार-विकिपीडिया)

15 जून 2014

एक कल जो आज भी है...

हमारे लिए सभी चीझें आसान हुआ करती थी | मुश्किलों का वास्ता बड़ों से होता था,हम बस उनकी उदासी पढकर अंदाजा लगा लेते थे कि मुश्किलें बड़ी हैं या छोटी | खुश रहना,हमसे ज्यादा बेहतरी से कोई नहीं जानता था और हमें खुश देखकर न जाने कितने चेहरों को मुस्कुराने का मौका मिलता था | छोटी-छोटी बातों में से खुशियाँ ढूँढकर चेहरों पर ओढ़ लेना,हम बखूबी जानते थे और हमारी ज़िंदगी ने उस वक्त तक हमें इतना ही सिखाया था | मतलब की बात को मासूमियत से बेमतलब बनाते हुए और बेमतलब की बातों से ज़िंदगी को जीना जानते थे | हमारे आस-पास की ज़िंदगी कैसी हो,इसका फैसला केवल हमारे हाथों में होता था | फ़िक्र से कभी पाला नहीं पड़ता था और ज़िंदगी को रत्ती भर भी समझे बगैर एक खुशहाल ज़िंदगी जीने का तरीका हम बखूबी जानते थे |
               एक उम्र को वक्त की परतों में यादों के संग सिमटाकर संजोते जाते थे | ज़िंदगी हमारी मर्जी से चलती थी और हर पहलू के पीछे हम वजह ढूँढने के फिराक में नहीं रहते थे | उस वक्त की ज़िंदगी उतनी ही मासूम थी जितनी कि हमारे चेहरें बयां करती थी | घर में माहौल गमगीन हो तो बिना कारण जाने हम भी उदास हो जाया करते थे और घर में ख़ुशी के वक्त सारी खुशियाँ हमारे चेहरों के मुस्कुराहट के रस्ते से होकर गुजरती थी | उन दिनों हम पढाई को इसलिए जरुरी समझते थे कि यह काम करने के बाद हमें कोई खेलने से रोकने वाला कोई नहीं होता था और इसी बहाने घर वालों की नज़र में हम पढ़ने वाले बने रहते थे और खुद की नज़र में खेल से सारी खुशियाँ पाने वाले |
               चोट लगती तो हम माँ का चेहरा पढकर अपने दर्द का अंदाजा मासूमियत से लगा पाते,पिता जी के गुस्से से समझ पाते कि हमारी लापरवाही बढ़ गई है,पर कभी-कभी उन्हीं लापरवाही के पीछे पिता जी का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखता तो सबकुछ बेहतर हो जाता था | माँ की गोद सुकून भरी नींद के लिए थी तो दुनिया भर की बेमतलब के सवालों के जवाब के लिए दादी और डांटने के लिए दादा जी होते थे |
               आज हम बड़े हो गए है इसलिए बचपन की इन सब बातों को याद करने का हमारे पास वजह और जरिया,आज की ज़िंदगी बनती है | अपने जेहन में से कभी न मिटने वाला एक सुनहरे वक्त को आज में याद करना उन ज़िंदगी को फिर से जीने के बराबर है | उन लम्हों को फिर से आँख मूँदकर देखे बगैर हमारी आज की ज़िंदगी अधूरी सी है और कहने के लिए हमारे पास है,काश...!!!
               यह अनुभव करना जरुरी है कि ताउम्र बचपना हममें से निकल नहीं पाता बस आज में वक्त ने इतना सा करवट ले लेता है कि हम मुस्कुराने से पहले उदास होना जरुरी मानते हैं,उम्मीद की डोर थामे बगैर बड़े-बड़े वादे और सपने लिए फिरते हैं,हर पहलू में मुस्कुराने के लिए वजह ढूँढते हैं,मासूमियत को गंभीरता बनाकर ओढ़ लेते है और हमारे आस-पास की ज़िंदगी बेहतर कैसे बने,इसका फैसला हम किसी और के हाथ में दे देते हैं |

                                                                                              - "मन"